लेखक संजय सोलंकी मध्यप्रदेश। भारतीय लोकतंत्र की नींव में पत्रकारिता एक मजबूत स्तंभ है, जो सत्ता की जवाबदेही सुनिश्चित करती है और जनता की आवाज बनती है। लेकिन हाल के वर्षों में, विशेष रूप से 2025 में, पत्रकारिता पर खतरे बढ़ते जा रहे हैं। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2025 के अनुसार, भारत में पत्रकारों पर शारीरिक हमले और आर्थिक दबाव प्रमुख खतरे बन चुके हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या सत्ता को सच्चे और निडर पत्रकार रास नहीं आ रहे? और विपक्ष, जो खुद को लोकतंत्र का रक्षक बताता है, पत्रकारों के मुद्दों पर क्यों मूकदर्शक बना बैठा है? यह लेख इन मुद्दों पर प्रकाश डालता है, जहां सत्ता की नीतियां पत्रकारों को दबाने का माध्यम बन रही हैं, जबकि विपक्ष की चुप्पी चिंताजनक है।
सत्ता की बुरी नजर: पत्रकारों पर बढ़ते हमले2025 में भारत में पत्रकारिता की स्थिति चिंताजनक है। द गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में पत्रकारों पर भय और हिंसा का साया मंडरा रहा है। सरकारी आलोचना करने वाले पत्रकारों को ऑनलाइन ट्रोलिंग, मौत की धमकियां और यहां तक कि शारीरिक हमलों का सामना करना पड़ रहा है।
उदाहरण के लिए, जुलाई 2024 में पत्रकार स्नेहा बर्वे को मौत की धमकियां मिलीं, जो हमले के कुछ हफ्तों बाद हुईं।इंटरनेट पर खबरों को मिटाने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है।
इंडेक्स ऑन सेंसरशिप की रिपोर्ट बताती है कि भारत में डिजिटल माध्यम से खबरों को ‘गायब’ किया जा रहा है, जो प्रेस स्वतंत्रता के सिकुड़ते दायरे का संकेत हे।क्या यह संयोग है कि ऐसे हमले उन पत्रकारों पर ज्यादा होते हैं जो सत्ता के फैसलों पर सवाल उठाते हैं? एक्सपर्टएक्स की रिपोर्ट कहती है कि पत्रकारिता भारत में अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।
लेकिन क्या यह सत्ता की व्यापक रणनीति का हिस्सा है? पीईएन अमेरिका की रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार में प्रेस स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा है।
विपक्ष की चुप्पी: मूकदर्शक क्यों?विपक्ष, जो सत्ता की गलतियों पर हमेशा उंगली उठाता है, पत्रकारों के मुद्दों पर अक्सर चुप क्यों रहता है? हाल के अफगान मंत्री के प्रेस मीट मामले में विपक्ष ने मोदी सरकार पर हमला बोला, लेकिन क्या यह चयनात्मक है?
एक यूट्यूब रिपोर्ट में कहा गया है कि तालिबान प्रेसर पर हंगामा हुआ, लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के समान कदम पर चुप्पी साध ली गई।
< मामलों पर विपक्ष की चुप्पी लोकतंत्र के लिए खतरा है।
निष्कर्ष: लोकतंत्र की रक्षा की जरूरतपत्रकारिता पर बुरी नजर पड़ रही है, और सत्ता को सच्चे पत्रकार रास नहीं आ रहे। लेकिन विपक्ष की मूकदर्शक भूमिका इसे और गंभीर बनाती है।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा पर कुछ कदम उठाए हैं, लेकिन क्या यह पर्याप्त है? ऐसे में, निरंतर संघर्ष ही रास्ता है।
यह समय है कि हम सब पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाएं, क्योंकि बिना निडर प्रेस के लोकतंत्र अधूरा है।