प्रदीप कुमार नायक स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार राम और रावण, मृत्यु और जीवन, दोनों विरोध वस्तुत: विरोधी नहीं हैं, सहयोगी हैं। और जिसने ऐसा देखा, उसी ने समझा कि रामलीला का अर्थ क्या है। तब विरोध नाटक रह जाता है। तब भीतर कोई वैमनस्य नहीं है। न तो राम के मन में कोई वैमनस्य है, न रावण के मन में कोई वैमनस्य है। और इसीलिए तो हमने इस कथा को धार्मिक कहा है। अगर वैमनस्य हो, तो कथा नहीं रही, इतिहास हो गया।
इस फर्क को भी ठीक से समझ लो। पुराण और इतिहास का यही फर्क है। इतिहास साधारण आदमियों की जीवन घटनाएं हैं। वहां संघर्ष है, विरोध है, वैमनस्य है, दुश्मनी है। पुराण! पुराण नाटक है, लीला है। वहां वास्तविक नहीं है वैमनस्य; दिखावा है, खेल है। जो मिला है अभिनय, उसे पूरा करना है।
कथा यह है कि वाल्मीकि ने राम के होने के पहले ही रामायण लिखी। अब जब लिख ही दी थी, तो फिर राम को पूरा करना पड़ा। कर भी क्या सकते थे। जब वाल्मीकि जैसा आदमी लिख दे, तो तुम करोगे क्या! फिर उसको पूरा करना ही पड़ा।
यह बड़ी मीठी बात है। द्रष्टा कह देते हैं, फिर उसे पूरा करना पड़ता है। इसका अर्थ कुल इतना ही है, जैसे कि नाटक की कथा तो पहले ही लिखी होती है, फिर कथा को पूरा करते हैं नाटक में। नाटक में कथा पैदा नहीं होती। कथा पहले पैदा होती है, फिर कथा के अनुसार नाटक चलता है। क्या किसको कहना है, सब तय होता है।
जीवन का सारा खेल तय है। क्या होना है, तय है। तुम नाहक ही अपना बोझ उठाए चल रहे हो। अगर तुम समझ लो कि सिर्फ नाटक है जीवन, तो तुम्हारा जीवन रामलीला हो गया, तुम पुराण—पुरुष हो गए, फिर तुम्हारा इतिहास से कोई नाता न रहा। फिर तुम इस भ्रांति में नहीं हो कि तुम कर रहे हो। फिर तुम जानते हो कि जो उसने कहा है, हो रहा है। हम उसकी मर्जी पूरी कर रहे हैं। अगर वह रावण बनने को कहे, तो ठीक।
रावण को तुम मार तो नहीं डालते! जो आदमी रावण का पार्ट करता है रामलीला में, उसको तुम मार तो नहीं डालते कि इसने रावण का पार्ट किया है, इसको मार डालों। जैसे ही मंच के बाहर आया, बात खतम हो गई। अगर उसने पार्ट अच्छा किया, तो उसे भी तगमे देते हो।
असली सवाल पार्ट अच्छा करने का है। राम का हो कि रावण का, यह बात अर्थपूर्ण नहीं है। ढंग से पूरा किया जाए , कुशलता से पूरा किया जाए। अभिनय पूरा—पूरा हो, तो तुम पुराण—पुरुष हो गए। लड़ो बिना वैमनस्य के, संघर्ष करो बिना किसी अपने मन के; जहां जीवन ले जाए बहो। तब तुम्हारे जीवन में लीला आ गई। लीला आते ही निर्भार हो जाता है मन। लीला आते ही चित्त की सब उलझनें कट जाती हैं। जब खेल ही है, तो चिंता क्या रही! फिर एक सपना हो जाता है।
इसी अर्थ में हमने संसार को माया कहा है। माया का अर्थ इतना ही है कि तुम माया की तरह इसे लेना। अगर तुम इसे माया की तरह ले सको, तो भीतर तुम ब्रह्म को खोज लोगे। अगर तुमने इसे सत्य की तरह लिया, तो तुम भीतर के ब्रह्म को गंवा दोगे।
हर साल दशहरा का त्यौहार के साथ -साथ रावण दहन की परम्परा भारत में बहुत पूरानी नहीं हैं l इसकी शुरुआत 1948 में रांची में मानी जाती हैं l जहां पाकिस्तान से आए लोगों ने इसे पहली बार आयोजित किया l इसके बाद दिल्ली और नागपुर जैसे शहरों में भी यह परम्परा फैल गई l आज यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक बन चुका हैं l